Poos Ki Raat (पूस की रात)

Kids, Teen, Short Stories, Fiction & Literature, Classics
Cover of the book Poos Ki Raat (पूस की रात) by Premchand, General Press
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Author: Premchand ISBN: 9788180320613
Publisher: General Press Publication: July 1, 2015
Imprint: Global Digital Press Language: Hindi
Author: Premchand
ISBN: 9788180320613
Publisher: General Press
Publication: July 1, 2015
Imprint: Global Digital Press
Language: Hindi

हल्कू ने आकर स्त्री से कहा—सहना आया है, लाओ, जो रुपए रखे हैं, उसे दे दूँ। किसी तरह गला तो छूटे।

मुन्नी झाड़ू लगा रही थी। पीछे फिर कर बोली—तीन ही तो रुपए हैं, दे दोगे तो कंबल कहाँ से आवेगा? माघ-पूस की रात हार में कैसे कटेगी? उससे कह दो, फ़सल पर दे देंगे। अभी नहीं।

हल्कू एक क्षण अनिश्चित दशा मे खड़ा रहा। पूस सिर पर आ गया, कंबल के बिना हार में रात को वह किसी तरह नहीं सो सकता। मगर सहना मानेगा नहीं, घुड़कियाँ जमावेगा, गालियाँ देगा। बला से जाड़ों में मरेंगे, बला तो सिर से टल जाएगी। यह सोचता हुआ वह अपना भारी-भरकम डील लिए हुए (जो उसके नाम को झूठा सिद्ध करता था) स्त्री के समीप आ गया और ख़ुशामद करके बोला—ला दे दे, गला तो छूटे। कंबल के लिए कोई दूसरा उपाए सोचूँगा।

मुन्नी उसके पास से दूर हट गई और आँखें तरेरती हुई बोली—कर चुके दूसरा उपाए! ज़रा सुनूँ कौन-सा उपाए करोगे? कोई ख़ैरात दे देगा कंबल? न जाने कितनी बाकी है, जो किसी तरह चुकने में ही नहीं आती। मैं कहती हूँ, तुम क्यों नहीं खेती छोड़ देते? मर-मर काम करो, उपज हो तो बाकी दे दो, चलो छुट्टी हुई। बाकी चुकाने के लिए ही तो हमारा जनम हुआ है। पेट के लिए मजूरी करो। ऐसी खेती से बाज आए। मैं रुपए न दूँगीन दूँगी।

हल्कू उदास होकर बोला—तो क्या गाली खाऊँ?

मुन्नी ने तड़पकर कहा— गाली क्यों देगा, क्या उसका राज है?

मगर यह कहने के साथ ही उसकी तनी हुई भौंहें ढीली पड़ गईं। हल्कू के उस वाक्य में जो कठोर सत्य था, वह मानो एक भीषण जंतु की भाँति उसे घूर रहा था।

उसने जाकर आले पर से रुपए निकाले और लाकर हल्कू के हाथ पर रख दिए। फिर बोली—तुम छोड़ दो, अबकी से खेती। मजूरी में सुख से एक रोटी खाने को तो मिलेगी। किसी की धौंस तो न रहेगी। अच्छी खेती है। मजूरी करके लाओ, वह भी उसी में झोंक दो, उस पर से धौंस।

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  2. पूस की रात (ISBN: 9788180320613)

  3. पंच-परमेश्वर (ISBN: 9788180320620)

  4. बड़े घर की बेटी (ISBN: 9788180320637)

  5. नमक का दारोगा (ISBN: 9788180320651)

  6. कजाकी (ISBN: 9788180320644)

  7. गरीब की हाय (ISBN: 9788180320668)

  8. शतरंज के खिलाड़ी (ISBN: 9788180320675)

  9. सुजान भगत (ISBN: 9788180320729)

  10. रामलीला (ISBN: 9788180320682)

  11. धोखा (ISBN: 9788180320699)

  12. जुगनू की चमक (ISBN: 9788180320736)

  13. बेटों वाली विधवा (ISBN: 9788180320743)

  14. दो बैलों की कथा (ISBN: 9788180320750)

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  16. घरजमाई (ISBN: 9788180320767)

  17. दारोगाजी (ISBN: 9788180320774)

  18. कफ़न (ISBN: 9788180320781)

  19. बूढ़ी काकी (ISBN: 9788180320798)

  20. दो भाई (ISBN: 9788180320712)

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हल्कू एक क्षण अनिश्चित दशा मे खड़ा रहा। पूस सिर पर आ गया, कंबल के बिना हार में रात को वह किसी तरह नहीं सो सकता। मगर सहना मानेगा नहीं, घुड़कियाँ जमावेगा, गालियाँ देगा। बला से जाड़ों में मरेंगे, बला तो सिर से टल जाएगी। यह सोचता हुआ वह अपना भारी-भरकम डील लिए हुए (जो उसके नाम को झूठा सिद्ध करता था) स्त्री के समीप आ गया और ख़ुशामद करके बोला—ला दे दे, गला तो छूटे। कंबल के लिए कोई दूसरा उपाए सोचूँगा।

मुन्नी उसके पास से दूर हट गई और आँखें तरेरती हुई बोली—कर चुके दूसरा उपाए! ज़रा सुनूँ कौन-सा उपाए करोगे? कोई ख़ैरात दे देगा कंबल? न जाने कितनी बाकी है, जो किसी तरह चुकने में ही नहीं आती। मैं कहती हूँ, तुम क्यों नहीं खेती छोड़ देते? मर-मर काम करो, उपज हो तो बाकी दे दो, चलो छुट्टी हुई। बाकी चुकाने के लिए ही तो हमारा जनम हुआ है। पेट के लिए मजूरी करो। ऐसी खेती से बाज आए। मैं रुपए न दूँगीन दूँगी।

हल्कू उदास होकर बोला—तो क्या गाली खाऊँ?

मुन्नी ने तड़पकर कहा— गाली क्यों देगा, क्या उसका राज है?

मगर यह कहने के साथ ही उसकी तनी हुई भौंहें ढीली पड़ गईं। हल्कू के उस वाक्य में जो कठोर सत्य था, वह मानो एक भीषण जंतु की भाँति उसे घूर रहा था।

उसने जाकर आले पर से रुपए निकाले और लाकर हल्कू के हाथ पर रख दिए। फिर बोली—तुम छोड़ दो, अबकी से खेती। मजूरी में सुख से एक रोटी खाने को तो मिलेगी। किसी की धौंस तो न रहेगी। अच्छी खेती है। मजूरी करके लाओ, वह भी उसी में झोंक दो, उस पर से धौंस।

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